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आग लगती जा रही
है
आग लगती जा रही है
अन्न-पानी में
और जलसे हो रहे हैं
राजधानी में
रैलियाँ पाबंदियों को
जन्म देती हैं,
यातनाएँ आदमी को
बाँध लेती हैं,
हो रहे रोड़े बड़े
पैदा रवानी में
खेत में लाशें पड़ी हैं
बन्द है थाना,
भव्य भवनों ने नहीं
यह दर्द पहचाना,
क्यों बुढ़ापा याद आता
है जवानी में
लोग जो भी इस
ज़माने में बड़े होंगे,
हाँ हुजूरी की नुमाइश
में खड़े होंगे,
सुख दिखाया जा रहा
केवल कहानी में
७ नवंबर २०११
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