वृक्ष है
किनारों के और हम
दो-चार दिन मिल लें
वृक्ष हैं हम
अब किनारों के!
बंद होंगी जब
हवाओं के लिए भी सीढ़ियाँ
क्या हमें पहचान लेंगी
कल सुबह की पीढ़ियाँ
डाल पर कुछ और हम खिल लें
फूल हम
अंतिम बहारों के!
आ रही डोली
दिखाई दे रहे मस्तूल
आज की मीनार है यह
सिर्फ़ कल की धूल
पास आती आहटें सुन लें
चल पड़े हैं
पग कहारों के!
साथ थे हम जिस तरह
पंखुरी गुलाबों की
थी यही तस्वीर
अपने चंद ख़्वाबों की
एक पल सपने वही बुन लें
हम दिये
बुझते सितारों के!
१६ नवंबर २००९ |