आएगा कुछ बादल
जैसा मुझे वृक्ष की तरह
न काटो
मैं बिरवा तुलसी-दल जैसा!
कभी मंजरी के घर जन्मा
जीवन यह तुलसी का चौरा
चंदन-वन होकर आया हूँ
जैसे कोई पवन झकोरा
मैं कस्तूरी वाला घन हूँ
थका-थका-सा घायल जैसा!
सुख की होती उमर न कोई
दुख भी कितना बड़भागी है
तन तो बैठा सिंहासन पर
मन उतना ही वैरागी है
कहीं न देहरी, द्वार न कोई
बहता नदिया के जल जैसा!
घुँघरू बनकर नाचा हूँ मैं
मंजीरों-सा गया बजाया
राजा होकर द्वारे-द्वारे
भेस फकीरों का घर गाया
मीरा-सा हर गीत हो गया
गाता फिरता पागल जैसा!
ढका-ढका चंद्रमा ग्रहण से
कोई उसे निहारे कैसे
जो आँधी वाला बादल हो
पपिहा उसे पुकारे कैसे
धूल-धूल होकर भी घन हूँ
इसमें कहीं न कुछ छल जैसा!
मुझे नहीं दुख है बिंधने का
क्योंकि हुए विजयी तुम अर्जुन
मेरी जय यह शर-शैया है
जिसे बुना तुमने शर चुन-चुन
प्यासा हूँ, पर धरा न बेधो
आएगा कुछ बादल जैसा!
कोई दमयंती सोई है
पवन उसे आ, जगा नहीं दे
पत्तों-पत्तों धूप उतरकर
आग छाँव में लगा नहीं दे
भटकूँगा एकाकी वन-वन
मैं निर्धन, राजा नल जैसा!
१६ नवंबर २००९ |