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अनुभूति में हरीश भादानी की रचनाएँ—

नये गीतों में-
कोलाहल के आँगन
तो जानूँ
साँसें
साँसों की अँगुली थामे जो
सुई

गीतों में-
कोई एक हवा
टिक टिक बजती हुई घड़ी
ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए
धूप सड़क की नहीं सहेली
ना घर तेरा ना घर मेरा
पीट रहा मन बन्द किवाड़े
सभी दुख दूर से गुजरे

 

सुई

सुबह उधेड़े शाम उधेड़े
बजती हुई सुई

सीलन और धुएँ के खेतों
दिन भर रूई चुनें
सूजी हुई आँख के सपने
रातों सूत बुनें
आँगन के उठने से पहले
रचदे एक कमीज रसोई
एक तलाश पहन कर भागे
किरणें छुई-मुई
बजती हुई सुई

धरती भर कर चढ़े तगारी
बाँस-बाँस आकाश
फरनस को अगियाया रखती
साँसें दे दे घास

सूरज की साखी में बँटते
अँगुली जितने आज और कल
बोले कोई उम्र अगर तो
तीबे नई सुई
बजती हुई सुई

१३ अक्तूबर २०१४

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