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अनुभूति में हरीश भादानी की रचनाएँ—

नये गीतों में-
कोलाहल के आँगन
तो जानूँ
साँसें
साँसों की अँगुली थामे जो
सुई

गीतों में-
कोई एक हवा
टिक टिक बजती हुई घड़ी
ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए
धूप सड़क की नहीं सहेली
ना घर तेरा ना घर मेरा
पीट रहा मन बन्द किवाड़े
सभी दुख दूर से गुजरे

 

ना घर तेरा, ना घर मेरा

ना घर तेरा, ना घर मेरा
लुबडुब थमने तक का डेरा !

इस डेरे के
भीतर बीहड़ काँटें और उगाएँ बाहर
भीतर के काँटों से छिल-छिल बाहर आ सुखियाया चाहें,
लागे बाहर तो चिरमी भर हो ही जाए वह विंध्याचल
खाय झपाटे समझ सूरमा थकियाये
भीतर जा दुबकें

दुबके-दुबके बुनें जाल ही फैंके चौकस बन बहेलिये
कटे, कभी तो उड़ ही जाए आखी उमर चले यह फेरा !

इस फेरे को
देखे ही हैं क्या लेकर आता है काई
फिर भी हर-हर लगे माँडता जमा-नाव के खाते-पाने
पोरें घिस-घिस गिनता जाए ज्यू-त्यूं जुड़ें नफे का तलपट
यह तलपट हो जाय तिजूरी यूँ-व्यूँ
नापे, तोले-जोखे

ऐसे में ही साँस ठहरले सीढ़ी झुक हो जाय बिछौना
आ ! मैं-तू दोनों ही देखें क्या ले जाए साथ बडेरा ?

जाते बड़कों की
जमघट में अनदेही होकर भी देही
चौराहों पर बोल बोलते दिखें कबीर, शिकागो-स्वामी,
इन दोनों का कहा बताया इनसे पहले कई कह गए
सुना, अनुसना करते आए करते ही
जाए हैं अब भी

पर एकल सच इतना-सा ही सबका होना सबकी खातिर
इस सच का सुख सिर्फ यही है और न कोई डैर-बसेरा !

२० फरवरी २०१२

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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