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ना घर तेरा, ना
घर मेरा
ना घर तेरा, ना घर मेरा
लुबडुब थमने तक का डेरा !
इस डेरे के
भीतर बीहड़ काँटें और उगाएँ बाहर
भीतर के काँटों से छिल-छिल बाहर आ सुखियाया चाहें,
लागे बाहर तो चिरमी भर हो ही जाए वह विंध्याचल
खाय झपाटे समझ सूरमा थकियाये
भीतर जा दुबकें
दुबके-दुबके बुनें जाल ही फैंके चौकस बन बहेलिये
कटे, कभी तो उड़ ही जाए आखी उमर चले यह फेरा !
इस फेरे को
देखे ही हैं क्या लेकर आता है काई
फिर भी हर-हर लगे माँडता जमा-नाव के खाते-पाने
पोरें घिस-घिस गिनता जाए ज्यू-त्यूं जुड़ें नफे का तलपट
यह तलपट हो जाय तिजूरी यूँ-व्यूँ
नापे, तोले-जोखे
ऐसे में ही साँस ठहरले सीढ़ी झुक हो जाय बिछौना
आ ! मैं-तू दोनों ही देखें क्या ले जाए साथ बडेरा ?
जाते बड़कों की
जमघट में अनदेही होकर भी देही
चौराहों पर बोल बोलते दिखें कबीर, शिकागो-स्वामी,
इन दोनों का कहा बताया इनसे पहले कई कह गए
सुना, अनुसना करते आए करते ही
जाए हैं अब भी
पर एकल सच इतना-सा ही सबका होना सबकी खातिर
इस सच का सुख सिर्फ यही है और न कोई डैर-बसेरा !
२० फरवरी २०१२
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