दीप मन के साथ
जलते दीप मन के साथ
जलते
फिर भी फैले पथ अँधेरे
क्यों नहीं हैं वो पिघलते
मन में करुणा बोलती है
कर ना पाती मन द्रवित
धर्म जाति के झमेलों
में फँसा जन है भ्रमित
साधना के बीज पलते
फिर भी भ्रम में हैं उलझते
क्योँ नहीं मन मन से
मिलते
कैसी कण की है ये माया
एक हर कण में समाया
सम की समता देखकर भी
भान ना अंतर में पाया
एक धागे में हैं पिरते
फिर भी मनके हैं बिखरते
क्यों नहीं माला हैं बनते
आज निज को खुद निहारें
पथ पे सारे स्वप्न वारें
स्वयं अपना मान होगा
गिरते हर जन को सम्भालें
आनंद का भण्डार फिरते
एक हँसी को भी तरसते
क्योँ नहीं मानव हैं बनते
११ जुलाई २०११ |