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अनुभूति में बाबूराम शुक्ल की रचनाएँ-

गीतों में-
अंधड़ों के दौर
कैसे हो गुलमोहर सवेरा?
जहर आग
वक्त जालिम
क्षण अकेला

 

जहर-आग

आग लिए घर की, वह जाता दफ्तर।
दफ्तर का ज़हर भरे, आता वह घर।

फाइल के पन्‍नों पर साँप रेंगने लगते।
टिप्‍पणियाँ 'बॉस' की, चुभतीं ज्‍यों तीक्ष्‍ण दंश,
खौलता गरम लावा, पसलियॉं जलाता।
चाहता बिछा दूँ, हर तरु कराह ध्‍वंश
भर लूँ खूनी खप्‍पर, कापालिक बनकर।

शबनमी पँखुरियों के, शहदीले बोल अब,
चुभते कटार जैसे, कजरारी आँखों के,
अश्रु अब अँगार जैसे। नरक लोक की यात्रा,
चलती गर्म कीलों पर।

नव्‍य व्‍यूह रचना में, रात-दिन गुज़र जाते,
कभी शिखंडी आगे, कभी 'कुंजरो वा'
हर क्षण मरण-हेतु बन जाते।
मचता कुरूक्षेत्र घमासान, भीतर-बाहर।

९ मई २०११

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