अनुभूति में
बाबूराम शुक्ल
की रचनाएँ-
गीतों में-
अंधड़ों के दौर
कैसे हो गुलमोहर सवेरा?
जहर आग
वक्त जालिम
क्षण अकेला
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अंधड़ों के दौर
इन दिनों
अमराइयों पर
अंधड़ों के दौर हैं।
बने जैसे भी बचालें
कोपलों की गोद में
फुनगियों पर अभी बाकी,
महकते कुछ बौर हैं।
बने जैसे भी बचालें
आचरण की संहिता में,
शेष हैं पन्ने कहीं कुछ,
फाड़ते खुलकर अभय वे,
मानते हम इस सभा के,
जिन्हें जन सिरमौर हैं।
बने जैसे भी बचालें
बुद्धि तो खुद गर्जियों के
जाल बुनती है।
भावना अपनी ढफलियों
पर बजी जो तान सुनती है।
बचे जैसे भी बचा लें,
इस अजनबी यातना से,
छाँह अपनी लग रही
जासूस कोई और है।
९ मई २०११
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