अनुभूति में अजय
तिवारी
की रचनाएँ—
गीतों में—
कैसे समझाएँ
खालीपन
जीवन - संध्या
धूप का टुकड़ा
सच्चाई
क्षण भर
|
|
कैसे समझाएँ
कैसे समझाएँ
इसी गाँव से
दूध-दही की
नदिया बहती थीं।
लोक कथाएँ और कहानी
सुनते कटती थीं रतियाँ,
अब फीकी पड़ी मिठास
कड़वाईं भोली बतियाँ।
कहते हैं कि
इसी मोड़ पर
कथकी, रसगुल्ले-सी
बुढ़िया रहती थी।
कटते जाते वृक्ष
नग्न हो रही धरती,
हम संतानों के हाथों
माँ की इज्ज़त लुटती।
कौन कहेगा
इसी पेड़ पर
एक सुनहली
चिड़िया बसती थी।
गिरता जाता नित-दिन
चारित्रिक स्तर,
उसी तरह ज्यों
भूमिगत जल का स्तर।
कैसे झुठलाएँ
‘मुन्नीबाई’,
इसी गाँव की
मुनिया होती थी।
१४ जुलाई २०१४
|