अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

गौरव ग्राम में-
असिधारा पथ

ओस बिंदु सम ढरके
प्राप्तव्य
फागुन
भिक्षा
मधुमय स्वप्न रंगीले
मन मीन
मेह की झड़ी लगी
सदा चाँदनी
साजन लेंगे जोग री
हम अनिकेतन
विप्लव गायन
हिंडोला

दोहों में-
सोलह दोहे

संकलन में-
वर्षा मंगल - घन गरजे

 

साजन लेंगे जोग, री

आज सुना है सखी, हमारे साजन लेंगे जोग, री,
हमें दान में दे जाएँगे वे विकराल वियोग, री।
इस चौमासे के सावन में घन बरसें' दिन रात, री,
ऐसी ऋतु में भी क्या होती कहीं जोग की बात, री,
घन-धारा में टिक पाएगी कैसे अंग भभूत, री,
फल जाएगी इक छिन-भर में यह विराग की छूत, री,
अभी सुना है साजन गेरुए वस्त्र रंगेंगे आज, री,
और छोड़ देंगे वे अपनी रानी, अपना राज, री,
हिय-मंथन शीलअ रति में भी यदि न विराग-विचार, री,
तो फिर बाह्य आवरण भर में है क्या कुछ भी सार, री?
प्रेम नित्य संन्यास नहीं, तो अन्य योग है रोग, री,
सखी, कहो, ले रहे सजन क्यों व्यर्थ अटपटा जोग, री,
हमने उनके अर्थ रंग लिया निज मन गैरिक रंग, री,
और उन्हींके अर्थ सुगंधित किए सभी अंग-अंग, री,
सजन-लगन में हृदय हो चुका मूर्तिमंता संन्यासी, री,
अब जोगी बन छोड़ेंगे क्या वे यह हिय-आवास, री,
सजनि, रंच कह दो उनसे है यह बेतुका विचार, री,
उनके रमते-जोगीपन से होगा जीवन भार, री,
चौमासे में अनिकेतन भी करते कुटी-प्रवेश, री,
उनके क्या सूझी कि फिरेंगे वे सब देश-विदेश, री,
उनका अभिनव योग बनेगा इस जीवन का सोग, री,
सखी, नैन कैसे देखेंगे उनका वह सब जोग, री।

१ अगस्त २००५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter