अनुभूति में रघुविन्द्र यादव
की रचनाएँ-
कुंडलिया में-
पाती
आई गाँव से
दोहों में-
जुगनू भी अब पूछते सूरज से औकात
डाल
दिये वनराज ने, हिम्मत के हथियार
संकलन में-
नया साल-
पूरे हों अरमान
मातृभाषा के प्रति-
जनभाषा हिंदी बने
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पाती आई गाँव से
(कुंडलिया)
पाती आई गाँव से, सुना रही है हाल।
खेतों में उगने लगे, कोठी, बँगले, मॉल।
कोठी, बँगले, मॉल, गगन को छूना चाहें।
बेघर हुए किसान, भर रहे ठंडी आहें।
जंगल रहे उजाड़, जोत भी घटती जाती।
दिला रही है याद, गाँव से आई पाती।
उभरी देखो देश की, खौफनाक तस्वीर।
भाव जमीनों के बढे, सस्ते हुए जमीर।
सस्ते हुए जमीर, लोग हो गए बिकाऊ।
आज पुरातन मूल्य, नहीं रह गए टिकाऊ।
संस्कृति थी सिरमौर, गर्त में देखो उतरी।
खौफनाक तस्वीर, देश की देखो उभरी।
रोटी देकर शहर ने, छीन लिया सुख-चैन।
याद सताये गाँव की, भर भर आते नैन।
भर भर आते नैन, शहर में जब से आये।
बाँटें किससे दर्द, यहाँ तो सभी पराये।
नहीं गाँव में काम, समस्या है यह मोटी।
कर डाला बेचैन, शहर ने देकर रोटी।
बरगद रोया फूटकर, घुट घुट रोया नीम।
बेटों ने जिस दिन किये, मात-पिता तकसीम।
मात-पिता तकसीम, कपूतों ने कर डाले।
तोड़ दिए सब ख्वाब, दर्द के किये हवाले।
बेटे को दे जन्म, हुई थी माता गदगद।
आज तड़पती देख, फूटकर रोया बरगद।
पैसे की महिमा बढ़ी, गौण हुए संस्कार।
आने लगा समाज में, हर दिन नया विकार।
हर दिन नया विकार, राह से भटका मानव।
मर्यादा को छोड़, बन रहा वहशी दानव।
धन का बस मान, कमाओ चाहे जैसे।
सिखा रहे अपराध, पाप से आये पैसे।
५ अगस्त २०१३ |