माता
दिव्या शीला ज्ञानिनी, जननी मातुहि अम्ब।
रक्षित सुत को कर रही, जैसे हो जगदम्ब।।१।।
धारण पालन लाल का, जैसे पावन सृष्टि।
सनेह प्रवर्षण अतुल रस, जैसे वारिद वृष्टि।।२।।
परम हितैषी जगत की, अनुपम दिव्य विचित्र।
सरस वचन अनुराग से, बनती रहती मित्र।।३।।
विस्मृत त्रुटि कर प्यार दे, देती अनुपम मोद।
बन संरक्षक संग जस, बरसे मधुहि पयोद।।४।।
शीत उष्ण की अधिकता, हृदय व्यथित हो जात।
झाड़ फूँक कर सब करे, वैद्य कहे जो बात।।५।।
सर्दी खॉसी जो हुयी, बालक हुआ बेचैन।
नींद गयी चिन्ता बनी, माँ को तनिक न चैन।।६।।
अतिहिं मनोहर भाव की, दिव्य गुणी है रूप।
धारण धैर्य धरित्री सम, मातृशक्ति यह रूप।।७।।
अप्रमेय अनुपम अति, अति आनन्द प्रदाय।
हँस-हँस स्नेह विराट दे, कोमल चित उर लाय।।८।।
आलोकित मन को करे, लाल को दे रस दान।
क्षुधा दूर करती रही, सदा करा रस पान।।९।।
अनघ बनाती लाल को, देकर शिक्षा दान।
स्वयं सहन दु:ख कर रही, सोचे सुत कल्याण।।१०।।
वत्स हर्ष से मग्न हो, रहे सदा हर वर्ष।
लेती नित उपवास वह, सभी तीज व्रत पर्व।।११।।
२२ मार्च २०१० |