कवि मर्म
कवि की कोई जाति नहिं, नही है कोई धर्म।
केवल हिय के भाव का, व्यक्त करे वह मर्म।।१।।
जग का उर में हर समय, रखता है वह मोह।
रस का जिसके हृदय में, चलता है सन्दोह।।२।।
भावुक उर में जन्म ले, नूतन सृजन विचार।
अद्भुत वर्णन कर सके, करके छन्द विचार।।३।।
भाव छन्द रस युक्त कवि, देता नव आदर्श।
जिस पर जन-जन कर सके, नव मति नवल विमर्श।।४।।
देशकाल दिखला रहा, रचना का संसार।
ताने बाने खुद बुने, करता दिव्य प्रसार।।५।।
जनता का सेवक कवि, प्रेरक प्रबल प्रकाम।
ललित पदों को ग्राह्य कर, लिखता ललित ललाम।।६।।
कवि की दुनिया अलग है, अलग है रचना धर्म।
अपने मन को तोष दे, समझे जग का मर्म।।७।।
अद्भुत अलख जगा सके, रचना करे समर्थ।
यद्यपि धन से विरत रह, देता सबको अर्थ।।८।।
कवि को केवल चाहिये, आन मान सम्मान।
रचना उसका अस्त्र है, उसी सी है बलवान।।९।।
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मई २००९
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