अनुभूति में
डा. शैलजा सक्सेना की रचनाएँ-
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अर्चना
सृजन प्रक्रिया
शिशु |
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पूजा – अर्चना
खाली हाथ लौट मैं आयी
द्वार तुम्हारे पहुँच खड़ी थी,
नमन मगर मैं न कर पायी
मन–घट लेकर पन–घट पर मैं
स्नेह–उर्मि जगा न पाई।।
हाथ जोड़, नत मस्तक होकर
मौन–भाव जगाने चाहे,
माँगों की चूनर अर्पित कर
इच्छाओं की झड़ी लगा दी
अंधियारे गलियारे में
तुम्हें किन्तु मैं देख न
पाई।।
यहाँ कपट की हवा चल रही
यहाँ अहं की हैं प्राचीरें
यहाँ स्वयं से झूठ बोलते
भीतर ही हैं दो जन बसते
बाहर के सच की क्या पूछो
अपने से आँख न मिला पाई।।
बहुत सरल है भाषण देना
सबके सम्मुख 'निज' ढक लेना
अक्सर अभिनय करते – करते
अभिनय को ही सच कह देना
मगर उम्र की राह, सत्य से
होगी भेंट भुला न पाई।।
माया की सारी जंज़ीरें
अपने आप उठा कर पहनी
औ हृदय के क्षीण गान को
जान–बूझ अनसुना कर दिया
मरुधर की इस भाग–दौड़ में
भावों का आकाल पड़ गया
बाँध टकटकी अम्बर देखा
स्वाती बूँद चखने न पाई।।
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