अनुभूति में
डॉ. प्रतिभा सक्सेना
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रक्तबीज!
भैंसा फिर उछल रहा है!
घसीट रहा इन्सानियत को जकड़ने, डालने को कैद में
अपनी रखैल बना कर!
उछल-उछल बार बार, चला रहा है सींग,
खुर पटक-पटक कर खूँद रहा है धरती!
वहाँ तो बीज रक्त में थे,
घरती पर बूँद गिरते नये शरीर खड़े हो जाते!
यहाँ तो मानसिकता है रक्तबीजी,
फैलते हैं बीज हवा के साथ, उगती हैं फ़सलें!
गिनती कहाँ? उनकी फ़ितरत में है
विश्व द्रोह!
विचार-विवेक-वर्जित अँधेरों में
जीना
फ़ितरत है उनकी!
ज़िन्दगी के लिए यही शर्त है उनकी!
शताब्दियों की साधना, मनुजता की विरासत,
संस्कृतियाँ, कलायें, विद्यायें,
नाम-निशान मिटा दो सब का!
तोड़ दो, जला दो सब कुछ
जो उनके अनुकूल नहीं है!
रोशनी नहीं है कहीं!
छाया है कुहासा, आच्छन्न हैं दिशायें,
आकाश बहुत धुँधला है।
और
उन पर किया गया कोई भी प्रहार,
रोप देता अगण्य रक्तबीज!
समाधान सिर्फ़ एक!
इतिहास स्वयं को दोहराये -
देवों के सार्थक अंशों से रूपायित हुई थी जैसे चंडिका!
शक्तियाँ जगत की मिल महाकार धर,
तुल जायँ करने को आर-पार फ़ैसला!
घेर लें दनुज को उन्मत्त महाकाली-सी
क्रुद्ध, कराल और सन्नद्ध!
प्रचंड वार से संहारती
अपनी लाल जिह्वा लपलपाती वही चामुंडा
तीक्ष्ण दाँतों से चबा-चबा, रक्त पी-पी
उगल डाले रिक्त अंश!
लाओ रोशनी, किरणें बिखेरो,
वर्ना दम घुट जाएगा -इन्सानियत का!
कि धरती मुक्त, हवा निर्मल, और दिशायें दीप्त हो जायें,
कि निर्विघ्न हो सके मानवता की जय-यात्रा,
और मंगलाचरण हो एक नये युग का!
८ मार्च २०१० |