अनुभूति में
डॉ. प्रतिभा सक्सेना
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मास्टर की छोरी!
विद्या का दान चले,
जहाँ खुले हाथ,
कन्या तो और भी
सरस्वती की जात!
और सिर पर पिता मास्टर का हाथ!
कंठ में वाणी भर,
पहचान लिए अक्षर!
शब्दों की रचना
अर्थ जानने का क्रम!
समझ गई शब्दों के रूप और भाव
और फिर शब्दों से पार पढ़े मन!
जाने कहाँ कहाँ के छोर,
गहरी गहरी डूब तक!
बन गया व्यसन!
मास्टर की छोरी!
पराये लगे न कभी,
लड़के, हर बार नये,
घर में आ रहते रहे!
माता का मन उदार,
भूख-प्यास जान रही,
अक्सर ही स्वेटर भी!
पढ़-लिख, तैयार चरण छूते,
बिदा होते!
किसी को भी नहीं खला,
कभी कमी नहीं पड़ी!
यों ही बड़ी होती रही
मास्टर की छोरी!
*
एक दिन किसी ने कहा -
उनके पास है क्या सिवा
फ़ालतू की बातों के
और इन किताबों के?
क्या अचार डालेगी,
रीत-भाँत- दुनिया से कोरी,
मास्टर की छोरी!
*
बुरा लगा, हुई दुखन!
जान गई अपना सच,
साध लिया बिछला मन!
दुनिया को समझ रही
अपने से परख रही
मास्टर की छोरी!
*
ब्याह गई!
नये लोग नये ढंग!
कमरोंवाला मकान,
लोक-व्यवहार,
सभी साज और सँवार!
लेकिन किताबों बिन,
सूनी-सी लगतीं रही
भरी अल्मारियाँ!
*
चाह उठे बार-बार,
कभी एकान्त खोज,
मन चाही किताब खोल
पास धर लाई-चना
देर तक पढ़ती रहे शान्त - चुपचाप!
कहीं रुके अनायास,
कुछ सोचती या गुनती रहे!
मास्टर की छोरी!
*
पढ़ती सभी के मन,
करने लगी जतन!
ले अकेलापन
कौन जाने वह चुभन!
पाट नहीं पा रही।
भीतर और बाहर के बीच बसी दूरी!
मास्टर की छोरी!
८ मार्च २०१० |