अनुभूति में
डॉ. प्रतिभा सक्सेना
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देर से निकला
आज सूरज
रोज से कुछ देर से निकला!
लो, तुम्हारी हो गई सच बात, सूरज, देर से निकला!
कुछ लगा ऐसा कि लम्बी हो गई है रात!
और रुक-सी गई,
तारों की चढी बारात
धीमी पड गई चलती हुई हर साँस
सूरज देर से निकला!
घडी धीरे चल रही,
चुछ सोचता-सा काल
भर रहा है धरा पर पग को सम्हाल सम्हाल!
बँधा किसकी बाँह में आकास,
सूरज देर से निकला!
अर्ध निद्रा मृदु स्वर लोरी सुनाते थे,
पंछियों के स्वर न वे, जो रोज गाते थे!
हर नियम अलसा गया है आज
सूरज देर से निकला!
देर तक अपना मुझे
टेरा किया कोई!
लगा सारी रात मैं
बिल्कुल नहीं सोई!
फिर कुहासा दृष्टि को बाँधे रहा ऐसा
कि सूरज देर से निकला!
८ मार्च २०१० |