स्वयमेव
किसी ने कुछ न किया हो
सब स्वयमेव हुआ हो
कर्म साहचर्य से
जब भावनाएं बंध गई हों
अचेतन ने जिसे खोजा हो
वही मिल गया हो
भावनाओं और अनुभूतियों को बांटने का
एक चिर साथ
एक संवेदना
एक प्रेरणात्मक स्पर्श
जिसमें शायद सर्वस्व समा सके
एक भावना
एक अपनत्व
जो निर्जीव मृत चेतनाओं में
प्राण फूंक सके
कल्पनाओं को
सजीव माध्यम दे सके
पर क्या ये हो सकेगा?
क्या ये सुखद परिवर्तन हो सकेगा?
१६ फरवरी २००५
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