अनुभूति में
दर्शवीर संधु की रचनाएँ—
छंदमुक्त में-
कर्म
घरौंदा
बातें
सफर
हक |
|
घरौंदा
मैने तो
बहार की हँसती आँखों से
शबनम चुरा, भिगो दिए थे
गुलों के साये में
महफूज़ छुपे
कुछ रंग
औ खुशबू
कि जब
तपता हुआ सहरा लौट आएगा
चेहरों से खुश्क परतें नोचने
तो इन कतरों को पहन
कट जाएगा त्रिकाल,
आँखों आँखों
पलक झपकते
तुम, जो चली गयीं
प्रवासी चिह्न की कतारों से नमी चुगने,
रहोगी, वहाँ खलाओं में
बहती धारा के बर्फ होने तक,
शायद
लौटो, तो रोक लेना
खानाबदोशों को पल भर
मेरे जर्जर से फूटते
अपने खुशबू औ रंग दिखाने
कि
तेरी भी एक ज़मीन थी
कभी!
२५ अगस्त २०१४ |