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अनुभूति में दर्शवीर संधु की रचनाएँ—

छंदमुक्त में-
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सफर
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बातें

कितने
खामोश होंगे
लफ्ज़, जो ढल पाए
सन्नाटे

वरना
सुरों तक को उठानी पड़ती है
उधारी, इनसे
महज़ नब्ज़ तक पहुँचने को


कंठ क्या हैं,
बेवजह बहती कल कल का
बेआवाज़ रुदन
एक सार धधकती
रग रग, साज़िश

या
ठहरी पुतली को
जिंदगी सा दिलासा

ये साए तो होते ही हैं
अँधेरे
जो उठ आते हैं बतियाने,
रातों को आँतों से
सरकने

पर
कितने ख़ामोश रहे होंगे
सन्नाटे जो
सुन पाए
बेलफ्ज तक!

२५ अगस्त २०१४

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