कैसा ज़माना आया यारों!
कैसा ज़माना आया यारों
होनी को अनहोनी ना करो
गर्मियों में ना ओढ़ो कंबल
सर्दियों में लो पहनो मलमल
इंसान खुद ही काया पलट रहा है
कहता है मौसम बदल रहा है
और सीनाजोरी का आलम देखो
उलटा सीधा सब चल रहा है
(नाईबु ज़मानना वल आइबू फीना)
ग्लोबल वार्मिंग की रट लगाई है
जंगलों खलिहानों की गत बुरी है
समय अभी भी है चेतो, सोचो, ख़बरदार बनो
हिंसा की नीति छोड़ो, पंचशील का गान चुनो
काश! दुनिया में होते शेख
जायद राशिद सम इंसा नेक
आबु धाबी सदृश्य शहर
यू,ए.ई सम वतन अनेक
धरती माँ न कराहती
न होता दूषित आकाश
मिल बाँट रहता न कोई भूखा,
प्यासा, नंगा या निराश
बुढ़ापे से क्यों कतराते हो
उसे तो एक दिन आना ही है
मौत से क्यों घबराते हो
सबके एक दिन जाना है
(आइना मा थकूनू युदरिककूकुम अलमौत - कुरान)
जब बाल सफ़ेद होने ही हैं
झुर्रियाँ खाल में पड़नी ही हैं
तो फिर ये लीपा-पोती क्यों?
डाईंग, कलरिंग,
कौसमेटिक सर्जरी क्यों?
बुज़ुर्गियत से डर मत भागो
छोड़ो दिखावा हक़ीक़त जानो
मस्त रहो हर हाल में,
चाल, काल और लिबाज़ में
यह शरीर, मकान रिश्ते-नाते,
सब बंधन हैं, नश्वर हैं,
बनते हैं, बिखरते हैं और
फिर एक दिन छूट जाते हैं
सब कुछ यहीं रह जाते हैं
ख़ाक में मिल जाने को
बस यादें ही रह जाती हैं
भले-बुरे का बयाँ करने को
मत भूलो कि रूह अमर है
रहो मेहरबान पर्बतदिगार के
न कभी जुदा करे चेहरे से
मुहब्बत भरी मुस्कान यार के
ऐसा ज़माना लाओ यारो
अनहोनी को होनी कर दो
सादगी, सदविचार मुहब्बत भरे
नवयुग का निर्माण कर लो
16 अप्रैल 2007
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