अनुभूति में
अब्बास रज़ा अल्वी की रचनाएँ
छंदमुक्त में-
अपने शहर
की
फिर तेज़ हवा
का
अंजुमन में-
फ़सादो दर्द
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अपने शहर की
फिर किसी आवाज़ ने इस बार पुकारा मुझको
खौफ और र्दद ने क्योंकर यूँ झिंझोड़ा मुझको
मैं तो सोया हुआ था खाक़ के उस बिस्तर पर
जिस पर हर जिस्म नयीं ज़िन्दगी ले लेता है
बस ख्.यालों में नहीं अस्ल में सो लेता है
ऑख खुलते ही एक मौत का मातम देखा
अपने ही शहर में दहशत भरा आलम देखा
किस क़दर खौफ़ ज़दा चीख़ की आवाज़ थी वो
बूढी .बेवा की दम तोड़ती औलाद थी वो
एक बिलख़ते हुये मासूम की किलकार थी वो
कुछ यतीमों की सिसकती हुई फ़रियाद थी वो
मुझको याद आया फिर एक बार वो बचपन मेरा
कुहर की धॅुंंध में लिपटा हुआ सपना मेरा
तब हम एक थे इन्सानियत की छॉव तले
अब हम अनेक हैं हैवानियत के पॉव तले
तब हम सोचते थे सब्ज़ और खुशहाल वतन
अब हम देखते हैं ग़र्क और लाचार वतन
तब फूल थे खु.शियॉ थीं और हम सब थे
अब भूख है ग़मगीरी और हम या तुम
तब तो जीते थे हम और तुम हम सबके लिये
अब तो मरते हैं हम और तुम र्सिफ़ अपने लिये
अब न वो इनसान रहा और न वो भगवान रहा
बस दूर ही दूर तक फैला हुआ हैवान रहा
देख लो सोचलो शायद तुम सम्भल पाओगे
रूह और जिस्म के रिश्तों को समझ पाओगे
क्यों जुदा करते हो रूह से जिस्म "रज़ा"
क्या कभी इस तरह तुम चैन से सो पाओगे
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