जिजीविषा
युगों युगों से है
सृजन की प्रेरणा समष्टि में
कोई तो है जो भर रहा
सुहाने रंग सृष्टि में
कि जिसकी दिव्य तूलिका से
सज गई दिशा दिशा
जो धड़कनों में गा रहा
जिजीविषा... जिजीविषा!
अपने अपने मरुथलों में
चल रहे हैं हम सभी
अलग अलग इबारतों में
ढल रहे हैं हम सभी
मरीचिका के रूप भिन्न
किन्तु एक सी तृषा
जो व्यग्र हो पुकारती-
जिजीविषा... जिजीविषा!
१ मई २०२४
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