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अनुभूति में विजयशंकर चतुर्वेदी की रचनाएँ -

छंदमुक्त में-
आखिर कब तक
कपास के पौधे
चूक सुधार
दस मौतें
पृथ्वी के लिए तो रुको

 

 

चूक सुधार

मुझे सुधारना था वह जवाब
जो एक परीक्षा में बिगड़ गया था मुझसे
और मेरे सपनों में आकर डराता था

सजाना था हस्टल का वह कमरा
जहा से मैं निकला था आख़िरी बार
कभी न लौटने के लिए

अपना नाम कटवाना था
उस खोमचे वाले वाली की उधारी से
जो बैठता था स्कूल के गेट पर

वह आलमारी करीने से लगाना थी
जिसमें रखी होती थीं माँ की साड़ियाँ
...और जो मुझे माँ जैसी ही लगती थी
जतन से रखना था वह स्पर्श
जो पिता ने चूमकर रख दिया था मेरे माथे पर

जलती रुई जैसी यादों को
वक्त की ओखली में
चूरन बना देना था कूट-कूट कर
लौटा देना था वह फूल
जो कसकता रहता है
मेरी पसलियों में पत्थर बनकर

दोस्तों को विदा करते वक्त
हाथ ऐसे नहीं हिलाना था
कि वे लौट ही न सकें मेरी उम्र रहते
कागज़ की कश्ती यों नहीं बहाना थी
कि वह अटक जाए तुम तक पहुँचने से पहले ही

मुझे सभाल कर रखना था वह स्वेटर
जो बुना था उसने गुनगुनी धूप में बैठकर
दिल के एकदम करीब मेरा नाम काढ़ते हुए

मुझे खोज निकालना था वह इरेज़र
जो उछल-कूद में बस्ता से गिर गया था छुटपन में
मिटा देना थीं अनगिनत भूलें
जो धस गहैं रोम-रोम में

मुझे 'हो चुके' को 'न हो चुका' करना था
उलटा घुमाते हुए ले जाना था पृथ्वी को
उसके घूमने के एकदम आरम्भ में

२९ मार्च २०१०

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