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ये कैसा नारी विमर्श
रोज़ सुन रही हूँ, पढ़ रही हूँ देख भी
रही हूँ
छोटे-बड़े परदे पर चल रही, चलती जा रही
अंतहीन, अर्थहीन सभ्यों की निरर्थक, झेलू बहस
जो खींच-तान कर बना दी जाती है देह-विमर्श
उघड़े बदन और रिसते लहू-लुहान जख्मों की
बेहयाई से जुगाली करता-कराता ये समाज
बस इतना भर ही!
खूब पढ़ा, खूब कोशिश भी की समझने-सोचने की
पर लगता रहा ये तो व्यथा-कथा भर ही तो है
परदे पर सवाक-अवाक चलती-फिरती परछाई ही तो है
कभी-कभार आँखें भी भर आती हैं तो क्या हुआ?
अनायास ओह! से ज़्यादा कह भी नहीं पाती कई बार
मन को लगाम लगानी पड़ती है ‘ऐसा होता ही रहता है’
बस इतना भर ही!
क्यों तुम मुझे और मेरे मन को भी कभी छू नहीं लेती
क्यों मुझे नारी जीवन की व्यथा-कथा नहीं सालती ?
क्यों मैं अपने को किनारे बैठा हुआ भी नहीं लगती ?
क्यों मैं डूबते हुओं को तमाशबीन भी नहीं लगती ?
क्यों इतनी सारी दुर्घटनाएँ अब घटना भी नहीं लगती ?
क्योंकर हर ओर चर्चा होती है मासूम के पल-छिन की
बस इतना भर ही!
मज़े से चटखारे ले-लेकर प्रश्नों के तीरों से घायल करते
मिर्च मसालों में लपेट कर किसी निष्कर्ष पर पहुँचते
फिर- फिर दोहराते दिखाते उन काले कारनामों को
पर चेहरा ढँक कर गुनाहगार के धुँधलाते बेगुनाह अक्स
बेबस अचानक पकडे गए जानवर से मासूम दिखते-लगते
बस इतना भर ही!
ये आत्म स्वीकृति है हमारी तो भी क्या मजा है?
अभी भी हम सब रस लेकर ही परदे बदल देते हैं
शायद अपने आप को उस जगह न पाने की खुशी में
एक राहत की साँस लेकर पहुँचते हैं अगले मुद्दे पर
क्योंकि देह विमर्श अभी भी देह से परे नहीं ले जा रहा
चोटी -घाटी,खाई -गहराई की नाप –जोख करा रहा
बस इतना भर ही!
मैं सोफे पर बैठी, बिस्तर पर लेटी अक्सर गुनगुनी धूप में
कुछ कुछ खाती-पीती-बतियाती –अलसाती चकित सी
पढती –देखती –गुनती रहती हूँ सब कुछ विस्मय भाव से
अरे! क्या कोई ऐसा खुला भी लिख पाता है आजकल
ओह! क्या इतना सह कर भी जी पाता है आजकल
बस इतना भर ही!
नहीं है मेरे आश्चर्य-विस्मय की सीमा का ओर छोर
अरे!गिद्धों-खूँखारों से घर में कैसे बच जाती हैं ये नारियाँ
वैसे बचा भी क्या रहता है चलती –फिरती लाशों में
तब भी गिरने-उठने, लड़ने-और पैने नाखूनों से नोचने
जीते जाने, जगह बनाने मुट्ठी भींचने से नहीं चूकती
एक उजली किरन की आस में, सूरज को आँखों में समोती
अभी तो बस इतना भर ही!
६ मई २०१३ |