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अब क्या सोचना
अब क्या सोचना ?
सोचा होता होने से कुछ पहले
पर वक़्त ने मुहलत भी कहाँ दी
घटता है सब कुछ, कितना कुछ
एक के बाद एक, हर पल हर छिन
छोड़ देते हैं बहने के लिये अपने को
ले जाएँ हवाएँ जिधर जी चाहे
ले जाएँ लहरें जहाँ जी चाहे
अगर—
रुक कर पल भर गर सोचना भी चाहें
न यादें पीछा छोडें न छूटे ख्वाब
बारी –बारी ललचाते हैं, लुभाते हैं
कुछ किया हुआ और कुछ करने को
बहुत कुछ है और जो छुपा हुआ सा
तब हम–
दौड़ते हैं बेतहाशा उस मृगमरीचिका के पीछे
पर वो आगे-आगे और हम पीछे-पीछे
कभी दूर लगे कभी पास लगे
कभी छाया बन, कभी माया बन
अबूझ पहेली और अबूझ प्यास बन
तब-
घूँट-घूँट पीते हैं पर प्यास है कि बुझती नहीं
पल-पल जीते हैं पर तमन्ना है कि मिटती नहीं
मुट्ठी में बंद पल रेत-से हर पल छीजते हैं
-बिखरते रहते हैं उँगलियों की दरारों से
और हम--चाहते हैं बचाना मुट्ठी में बंद इन पलों को
जब कि होता है रेत का एक बड़ा-सा पहाड़
दूर कहीं धुँधला –सा नज़र भी आता है
अंततः –
नियति का लिखा मान निगाहें ठहरी रहती हैं
अपनी बंद मुट्ठी और हाथ की लकीरों पर
और वक़्त बीतता जाता है
हार हमने कभी मानी नहीं
सिर उठा कर नया आकाश खोज लेते हैं
और उड़ चलते हैं नए सूरज की ओर
६ मई २०१३ |