निजी स्वार्थ
बैठी थी
बस की खिडकी के पास
देखना चाहती थी
जग का कुछ हाल
इसी वक्त एक चंचल हवा
आई कानों के भीतर
और सुनाने लगी मल्हार राग
मैं सुख पाने लगी
दुनिया को भुलाने लगी
क्या हो रहा है?
क्या होना चाहिए?
मैं कोई प्रधानमंत्री तो नहीं
मुझे इससे क्या लेना देना?
निजी स्वार्थ में लिप्त
मुँदी आँखे जब मैंने खोली
बस रुकी थी
और सफर
हो गया था समाप्त!
१३ जुलाई २०१५
|