अनुभूति में
सुरेन्द्र प्रताप सिंह की
रचनाएँ -
छंद मुक्त में-
खामोश हो जाता हूँ मैं
ज़िंदगी कविता या कवयित्री
पत्थर
ये सिमटते दायरे
विचार
श्रद्धा
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श्रद्धा
कुछ नहीं चाहा कभी
कुछ नहीं माँगा
बिन मांगे, अनजाने में
मिला बहुत कुछ फिर भी मुझको
थोड़ा सा दर्द, थोड़ी सी तन्हाई,
थोड़ा सा ग़म, थोड़े से ज़ख्म
और कुछ यादें मीठी सी
आधी उम्र से भी ज़्यादा
सहा ये सब
और तभी तो बन पाया,
जो मैं हूँ आज,
कितना कठोर, पत्थर सा !
आज खड़ा हूँ
उसी अतीत की नींव पर
जो कभी डाली थी तुमने,
अनजाने में ही !
बहुत मजबूत है वो नींव
बहुतों ने की कोशिश
पर नहीं हुआ मैं
टस से मस !
खोया नहीं कुछ भी
पाया बहुत कुछ
था ही क्या खोने को
पाने को था बहुत कुछ
सिवाय तुम्हारे ,
हाँ! ये सच है, ईश्वर है साक्षी
कभी नहीं चाहा कि
तुम हो जाओ मेरे
चाहीं थी खुशियाँ दुनिया भर की
सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए !
सारे सपने, सारे ख़्वाब
जो कभी देखें हों तुमने अकेले
और मिलकर किसी के साथ
हों जाएँ वो सब पूरे
बस चाहा था इतना भर !
अब भी चाहत है वही
प्यार, इश्क, मोहब्बत,
ये शब्द मात्र हैं, वो भी
खोखले, आधे-अधूरे
रिश्ता इन शब्दों से न था
न कभी होगा
हाँ, मैं पहुँचा था सीधे ही
इनसे अगले पायदान पर
ह्रदय में थी श्रद्धा
और सिर्फ श्रद्धा, तुम्हारे लिए
और रहेगी हमेशा !
३ मई २०१०
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