अनुभूति में सुनील साहिल की रचनाएँ
छंदमुक्त में-
उठो भी अब
काश
छोटी छोटी बूँदें
जब तुम आते हो
तुमसे मिलने के बाद
दरियागंज के आसपास
हास्य व्यंग्य में-
जोंक
गुरू की महिमा
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काश
काश तुम्हें कर पाता मुक्त
इस पिंजरे से दूर
कहीं नभ में
पा जातीं तुम अपना विस्तार
कर पातीं स्वप्न पूर्ण, इच्छाएँ साकार
नयन तुम्हारे और चंचल हो जाते
और अंग खिल के कँवल हो पाते
काश इन बंधनों से दूर
कर पातीं मेरे आलिंगन में
कुछ क्षण विश्राम
देह कमनीय पा जाती सम्मान
जान पाती स्व अस्तित्व
वाणी तुम्हारी और झंकृत हो जाती
या फिर खिलखिला कर ही तुम हँस पातीं
नीर थमा है नयनों में जो
काश सुधा में बदल देता मैं
दृष्टि पड़े जहाँ तुम्हारी
बसंत कर देता मैं
पुष्प हो बगिया है तुम्हारा निवास
कर रही क्या कंटकों में
चली आओ मेरे पास
अनभिज्ञ हूँ क्यों ढालता भिन्न रूपों में
तुम्हारा रूप
अरूनारी साँझ में ज्यों
उठता पूनों का चाँद अनूप
क्यों हर क्षण स्पर्श तुम्हारा
महसूसता हूँ आसपास
मुखबिम्बित हर दिशा
तीव्र हो रही श्वास
सुगंध तुम्हारी मुझको क्यों छूती है
नहीं क्या ये प्रेम की अनुभूति है
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