खुसरो नहीं गुज़रती रैन
खुसरो!
नहीं गुज़रती रैन!
आँके-बाँके दिवस
यहाँ है
कटे-फटे पल दिन
कुशल-क्षेम वाले संबोधन
अब तो हुए कठिन
दिन बदले तो
बदल गए हैं
अपनों के भी बैन।
चाभी वाले
सभी खिलौने
खोज रहे हैं चैन।
पाँवों में जग
रही बिवाई
और जीभ पर छाले
जिनको घर की चाभी सौंपी
बन बैठे घरवाले
फूलों वाले
चेहरे लेकिन
मुँह में भरी कुनैन।
हैं करील के
पौधे मनबढ़
पाँवों से अझुराते
मुरलीधर हैं नहीं अधर पर
मुरली भी धर पाते
यमुना जल से अब कदंब भी नहीं लड़ाते नैन।
9 जून
2007
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