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अनुभूति में सुधांशु उपाध्याय की रचनाएँ

गीतों में-
औरत खुलती है
काशी की गलिया
खुसरो नहीं गुज़रती रैन
दरी बिछाकर बैठे
नींद में जंगल
पोरस पड़ा घायल
बात से आगे

हुसैन के घोड़े

 

औरत खुलती है

हल्की बारिश
एक-एक कर पत्ती धुलती है
धीरे-धीरे जैसे
कोई औरत खुलती है!

फूल बह गए
नदी रुकी है
टहनी तट की
और झुकी है
पानी को सहलाता पानी
कितना दर्द छिपाता पानी
टप-टप गिरती हुई रोशनी
पोर-पोर में घुलती है!

परछाईं-सी
काँप रही है
ठहर गई-सी
भाप रही है
होठों पर सिसकारी बैठी
अनजाने बादल की आदत
कितनी मिलती-जुलती है!

थके हुए छींटें
पानी के
सबब बने
नादानी के
नोक-नोक पर पानी ठहरा
भीतर पत्ता हुआ हरा
बहुत देर तक गीली टहनी
रहती हिलती-डुलती है।

9 जून 2007

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