बात से आगे
आज अचानक उचटा मन ये
त्योहारों तक आया है,
बादल चलकर बिजली के
नंगे तारों तक आया है।
ढेरों यादें पानी पर की
फूल सरीखे बहती हैं
भित्ति-चित्र की आदिम लिपियाँ
जाने क्या-क्या कहती हैं
सदियों का
यों धुँधला दर्पण
शृंगारों तक आया है।
ये मौसम की बात नहीं
कुछ उससे ज़्यादा है
बोझ उतर जाने पर जैसे
दुखता काँधा है
बजती नहीं साँकलें जिनकी
हाथ हमारा अलसाए उन
घर-द्वारों तक आया है।
गाने लगा नदी का पानी
लहरें बजती हैं
मछली के कुनबे में कोई
हलचल जगती है
सागर ओढ़
भाप की चादर
बौछारों तक आया है।
सोए राग छेड़कर कोई
कब तक सोएगा
किसी नींद के टुकड़े में
वह सपने बोएगा
साथ हमारी
बात से आगे
व्यवहारों तक आया है।
9 जून
2007
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