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अनुभूति में श्रीनिवास श्रीकांत की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
अनात्म
कविता सर्वव्यापिनी
नया साल
मृत्यु
सरकण्डों में सूरज

 

कविता सर्वव्यापिनी

कविता प्रतिध्वनि है अन्तर्मन की
अन्तर्मन उसकी अनुगूँज
जल, नदी, जंगल भी है कविता
जहाँ पेड़ों के बीच से
गुज़रती हवा
करती है सम्वाद
जिसे सुनता है अविरल
स्वयंभू शून्यकार
अकेले में

अनगिन अब्दों से
निरन्तर यात्रा कर रही है कविता
वैतालिनी
काल की पीठ पर होकर सवार
वर्णाक्षरों में अहर्निश सृजनातुर

जल प्रलय होगी
तो पत्तों की नाव पर
एक नये मनु के साथ
फिर जिएगी कविता

जाने क्यों झुरमुटों में
नहीं सुनायी देता अब
परिन्दों का वृन्दवादन
न चीड़ वन से गुज़रते
हवा की वॉयलिन

वनपाखी थक गए हैं शायद
प्राकृत उत्सवों में जी जी कर
पंख उनके हो गए हैं निष्क्रिय
मानव के दिवास्वप्न
धुँधलाये हैं
कदापि
विषबुझे मौसम में

गाँव से निष्कासित हो
शहर आ गयी है कविता
पत्रिकाओं की भीड़ में
खो गयी उसकी पहचान

कविता आती है कभी कभी
ध्रुवीय पठारों से
पक्षियों के पंखों पर
प्रवास करती भूमध्य में
जल भूमियों की
मनोरम झीलों के तट
कछारों पर
जहाँ उनकी सुध लेते हैं
परिन्दों के रसज्ञ

ओ, आज के विलासी मनुष्य
तुम रहो मस्त
अपने कंकरीटी घरों में
स्क्रीन पर देखते रहो
रॉक संगीत की
फूहड़ थिरकनें
अनर्गल फिल्मी गानों पर
बनाओ उसे
सस्ती विज्ञापनबाज़ियों का
शिकार

देखो, समुद्र कुरेद रहा है
कगार की चट्टानों को
कर रहा वह
अमूर्त रेखांकन उत्कीर्ण
मिटा देती हैं जिन्हंे
लहर पर आती लहरें
रेतिल किनारों पर जमा होती
महज़ समुद्र झाग

दिखायी देते उजली रात में
पानी के गँदले चहबच्चों में
चन्द्र के अनगिनत बिम्ब
देखो, ढूँढो
वहाँ मिलेगी तुम्हें कविता
उकेरो उसके महत अर्थ
एहतियात से खोलो
उसकी तहें
जिनमें मजलूम आत्माएँ
कर रहीं चीत्कार

फूहड़ रतिभाव प्रदर्शन
नहीं करती कविता
वह है आद्या माँ,
रस की जननी
निराला की पत्थर तोड़ती
श्रमशील औरत
कामायनी की श्रद्धा
किंवा ‘गुड अर्थ’ की
संतप्त धरती

नगर सभ्यता जब दौड़ रही हो
उड़न सेतुओं पर
अपने उन्मादी जुलूसों
वाहनों की धुआँ धुआँ
भड़भड़ के साथ
वह बोलती है
सर्वहारा के दर्द में
जिनका अस्तित्व
हो रहा कुर्बान
सेतु स्तम्भों, गगन चूमते भवनों
और तारकोली महामार्गाें की
श्रम वेदिकाओं पर

अब बेशक हाशिए में
जी रही हो कविता
पर वह कभी मरेगी नहीं
शीतनिद्रा में
सर्पिणी सी रहेगी भूमिगत
बस कुछ देर और
पावक ऋतु आने तक।

२६ मार्च २०१२

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