अनुभूति में
श्रीनिवास श्रीकांत की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
अनात्म
कविता सर्वव्यापिनी
नया साल
मृत्यु
सरकण्डों में सूरज |
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अनात्म
वह घूम रहा अकेला अनात्म
रोज़-ब-राज देखते हैं हम उसे
महानगर, मैट्रो, सर्पाकार सड़कों पर
टैªफिक के बीच
वह नज़र आता है चिन्तातुर
बैठा अपनी गाड़ी में
अपनी भावी योजनाओं
संकल्पों पर सोचता
वह है आज का आदमी
करोड़ों में वह है
एक निरन्तर
आगे बढ़ती हुई लकीर
एक एक कर
इतनी सारी लकीरें
मगर बिन्दु सी एकाकी
शोर में भी बुन रहा वह
अपने लिए
काल के समानान्तर
एक सन्नाटा
अपने कैवल्य में संघर्षरत
जीवन की भूलभूलैयों में
खोया खोया
भटक रहा
जुटा रहा अपने लिए
भौतिक सुख का सुविचारित
साज़-ओ-सामान
वह है आधुनिक जनसमूह में
पहचाना जा सकने वाला
एक औसत आदमी
इच्छा की गाड़ी में अग्रसर
अन्तरात्मा उसकी
हो गयी है भूमिगत
अनमोल अतीत
कहीं छूट गया पीछे
तहज़ीब, अपनापन, मानापमान
है अब उसके लिए
गुज़रे हुए कल की बात
वह कर रहा महज जमा-खर्च
तन, मन और धन ही है अब
उसका वतन
उसकी आहट पर
घर के ग्लास टैंक में
हरकत करने लगती हैं
रंगबिरंगी मछलियाँ
डुबकियाँ लेतीं
सहज उछलतीं
वे हैं सुनहरी बलाएँ
जल के छल में
भटकता है
नीलाम-मण्डियों में
उसका अनात्म
आज़माने अपना भाग्य
जीवन अब उसके लिए
सट्टा है
जुए में अब उसने
खुद अपने को भी
रख दिया है रहन
वह खेलता है बार बार
वही एक दाव
वह है विदेह
वह है अनात्म
आत्मा तो कुछ नहीं करती
मृत्यु के साथ
वह ले लेगी
संसार से विदा।
२६ मार्च २०१२ |