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मेरी परछाई
हम दो हैं-
मैं और मेरी परछाई।
जब भी मैं परिस्थितियों में
सहज होना चाहती हूँ -
मेरी परछाई
बहुत दूर भाग जाती है।
जब भी मैं काम में
मन लगाती हूँ -
वो कल्पना की
रंगीन चादर बिछाती है।
तितली की तरह इधर-उधर
मँडराती है।
जब मैं किसी मीटिंग में बैठ
गंभीरता से सिर हिलाती हूँ-
वह शरारत से गुदगुदाती है।
हाथ पकड़ कर बाहर ले आती है।
जाने कैसे-कैसे बहाने बनाकर
अपनी बातों को सही ठहराती है।
जब भी मैं जीवन को
सहज अपनाती हूँ --
वह विरोध कर देती है।
मैं इसे कैसे समझाऊँ ?
जान नहीं पाती हूँ।
घूर कर , डाँट कर
झींक कर रह जाती हूँ।
तुम इस परछाई को
सच ना समझना।
इसके साथ कोई ख्वाब
ना बुन ना।
क्योंकि ये केवल परछाई है
सच नहीं।
कभी भी धोखा दे जायेगी
जब मेरी ही ना हुई तो
तुम्हारी क्या खाक हो पाएगी ?
24
अक्तूबर 2007
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