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वह
उसका खिला हुआ दुधिया
चेहरा देखकर
दुःख अपने मोर्चे से हट जाता है...
मैं हडबडाकर सुख के कतरों
की वर्ग पहेली सुलझाने लगता हूँ
और पिछड़ जाता हूँ उसके कौशल और,
उसकी तेजी से !
एक करिश्माई करतब की मानिंद
वह दुःख बटोर कर
सुख के सफेद परिंदे में बदल देती है.
मैं उसे दूर तक
धूप में चलकर आते देखता हूँ...
मेरे नजदीक,
उसकी वह चाल खत्म होने तक...
वह आते ही कहती है...
तुम्हें हँसना चाहिए !
मैं उसके दुधिया चेहरे से
हँसी के गुलाबी चकत्तों की चमक सोख कर
अपने चेहरे पर मुस्कान उगा लेता हूँ
रोज वह मेरे भीतर
सुख बोती है,
हँसी के फव्वारे से उसे सींचती है,
वह मेरे पूरे वजूद को किसी
मौसमी गुल की तरह खिला देना चाहती है...
और मैं चाहता हूँ सिर्फ यह
कि आखिरकार
उस पर कोई ढंग की कविता भर लिख सकूँ...!
७ जनवरी २०१३ |