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कविता
बहुत दिनों बाद
कविता का लिखा जाना
कुछ बोलने और न बोलने की
उलझन में फँसे रहने के बाद
आखिरी तयशुदा
पड़ाव है...
मगर यह तो
हाशिए पर बेजुबान खड़े रहने से
बेहतर ही है !
चुप्पी के शहर में
दाँत बजाती कविता
एक महीन शोर उत्पन्न करती है...
यह जितनी मेरी आवाज़ हो सकती है,
उतनी ही तुम्हारी भी...
जबकि बहुत कम मशक्कत के बाद,
सुनने वालों के पहचान-पत्र बरामद कर लिए गए हैं !
यह दौर नहीं बोलने वालों को पुरस्कृत करने वाली
असभ्य योजनाओं का है...
मेरी बाँसुरी में छिद्र नहीं है...
बहुत अजीब सी तान है इसकी
मै कविता को बाँसुरी की तरह
बजा रहा हूँ
और जो
कलाबाज़ मदारी की मेहनती लड़की की तरह,
सन्नाटे की दीवार पर
सध रही है... कामयाब !
बहुत दिनों के बाद कविता का लिखा जाना
एक उर्ध्वाकार और क्षैतिज रेखा
का एक ही अनुपात में खींचा जाना है
यद्यपि...
यह
भाषा की सान,
बाँसुरी की तान और
बजाज की थान
घोड़े की थकी हुई रान
बनिए के बटखरे पर
धरी हुई गरीब की आन
जैसी कोई
तुकबंदी हरगिज नहीं है...
अब कविता का खुद को रचा ले जाना
ठीक वैसी ही घटना है,
जैसे कुछ अजूबा सा तब
घट गया हो,
जब सभी सो रहे थे...
और गनीमत यह कि
सुबह के अखबार में उसका जिक्र ही नहीं है !
७ जनवरी २०१३ |