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चाहत
धूप चाहती थी
फूस के टूटे घरों में जाना
झुग्गी झोपड़ियों को जगाना
किन्तु जा न सकी
अट्टालिकाओं की ऊँचाई नापती रह गई
दूर कर न सकी भीमकाय भवनों की छाया।
नदी चाहती थी
किसान के खुश्क चेहरों को पोंछना
मिट्टी से खेलना
खेतों में बनाना घर-घरौंदा
जा न सकी, बाँध के क्रुर पंजों में फँस कर रह गई।
पी गये उसे आधुनिक अगस्त्य।
हवा चाहती थी
बीमार बच्चों को गोद में लेना
सीलन बदबू दूर करना
लाना उसके लिए तितली और फूल
ले जाना उसे चाँद के आँगन में
पार कर न सकी
इस्पाती पाबंदियों को ।
१० फरवरी २०१४
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