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अनुभूति में ऋषभदेव शर्मा की रचनाएँ-

मुक्तक में-
बत्तीस मुक्तक

क्षणिकाओं में-
बहरापन (पाँच क्षणिकाएँ)

छंदमुक्त में-
दुआ
मैं झूठ हूँ
सूँ साँ माणस गंध

तेवरियों में-
रोटी दस तेवरिया
लोकतंत्र दस तेवरियाँ

 

बत्तीस मुक्तक

सम्मोहन

अमरित की कनी ज़हर में डुबाई है।
चमकती हुई तलवार निकल आई है।
यह अलौकिक रूप नज़रें बाँध लेगा
आज बिजली चाँदनी में नहाई है।

शुभ आगमन

तुम्हारी ज़ुल्फ़ों से मधुरिम पराग झरता है
तुम्हारी निगाह से धरा का रंग निखरता है
जाग उठती हैं दिशाएँ तुम्हारे आने से
तुम्हारे गाने से सूरज उड़ान भरता है

वह शाम

शाम थी कैसी कि नटखट बादलों में हम घिरे थे।
सब दिशाएँ खो गई थीं, भटकते यों ही फिरे थे।
याद हैं फिसलन भरी क्या चीड़ की वे पत्तियाँ?
एक-दूजे को सँभाले दूर तक जिनसे गिरे थे।

गुस्सा

पुतलियों में तैरता जो स्वप्न का संसार था।
आपका वर्चस्व था बस आपका अधिकार था।
मैं जिसे गुस्सा समझ ताज़िंदगी डरता रहा
डायरी ने राज़ खोला, आपका वह प्यार था।

खुशबू

एक पगली छोकरी।
फूलों की टोकरी।
खुशबू ने कर ली
उसके घर नौकरी।

वह मैं न था

होंठ पर थे गीत मेरे, साँस में मेरी कहानी थी।
उन दिनों आपको मेरी हर अदा लगती सुहानी थी।
आज बरसों बाद अपनी समझ में यह बात आई है
आपने चाहा जिसे वह मैं न था, मेरी जवानी थी।


लाचार हूँ

दुश्मन के संग वास की आदत से लाचार हूँ।
वर्षा के बीच प्यास की आदत से लाचार हूँ।।
मैं जानता हूँ, आज फिर तुमने झूठ कहा है
पर क्या करूँ, विश्वास की आदत से लाचार हूँ।

रूप

कब कहा मैंने कि मुझको बाँह में अपनी भरो।
कब कहा मैंने कि आहें याद में मेरी भरो।
यह तुम्हारा रूप पावन, दृष्टि को पावन करे
प्राण में गूँजा करे, बस, तान कुछ ऐसी भरो।

शुभोदय

फिर सुहानी भोर आई, मित्रवर, तुमको नमन।
ऊर्जा की धूप छाई, मित्रवर, तुमको नमन।।
यह दिवस उल्लास में, आनंद में खिलता रहे
शुभकामना संदेश लाई, मित्रवर, तुमको नमन।

कैसे चलूँ?

यह विषम पथ, नाथ! मैं कैसे चलूँ?
अब तुम्हारे साथ मैं कैसे चलूँ?
लोग हाथों में लिए पत्थर खड़े
हाथ में दे हाथ मैं कैसे चलूँ?


धीरे धीरे बोल

''रूप रश्मियों से नहलाकर, मन की गाँठें खोल
यौवन की वेदी पर अर्पित, क्वाँरा हृदय अमोल
प्राणों पर चुंबन अंकित हों, जीवन में रस घोल!''
''दीवारों के कान सजग हैं, धीरे धीरे बोल!''

स्वच्छंद

नभ के शब्द, धरा का सौरभ, हमको छुआ करें
दुग्ध स्नात हर मधुरजनी हो, मिल कर दुआ करें
चाँदी सी किरणें छू छू कर, मनसिज युवा करें
दीवारों के कान सजग हैं! होते! हुआ करें!


रोशनदान

नहीं द्वार पर धूप थिरकती, और सूर्य का भान नहीं
कमरे कमरे में सीलन है, दिवा रात्रि का ज्ञान नहीं
दीवारों के कान सजग हैं, और रोशनी डरी हुई!
ऐसे घर में कौन रहेगा, जिसमें रोशनदान नहीं?

नीम की ओट में

नीम की ओट में जो कई खेल खेले,
चुभे पाँव में शूल बनकर बहुत दिन.
वासना के युवा पाहुने जो कुँवारे,
बसे प्राण में भूल बनकर बहुत दिन.
चुंबनों के नखों के उगे चिह्न सारे,
खिले देह में फूल बन कर बहुत दिन
स्वप्न वे सब सलोने कसम वायदे वे,
उड़े राह में धूल बन कर बहुत दिन.

खिला गुलमुहर जब कभी

खिला गुलमुहर जब कभी द्वार मेरे,
याद तेरी अचानक मुझे आ गई
किसी वृक्ष पर जो दिखा नाम तेरा,
जिंदगी ने कहा - ज़िंदगी पा गई
आइने ने कभी आँख मारी अगर,
आँख छवि में तुम्हारी ही भरमा गई
चीर कर दुपहरी, छाँह ऐसे घिरी,
चूनरी ज्यों तुम्हारी लहर छा गई

छुआ चाँदनी ने

छुआ चाँदनी ने जभी गात क्वाँरा,
नहाने लगी रूप में यामिनी
कहीं जो अधर पर खिली रातरानी,
मचलने लगी अभ्र में दामिनी
चितवनों से निहारा तनिक वक्र जो,
उषा-साँझ पलकों की अनुगामिनी
तुम गईं द्वार से घूँघटा खींचकर,
तपस्वी जपे कामिनी-कामिनी


मैं उजला होने आया...

मैं उजला होने आया था
जग ने और कलुष में धोया!
जिसको धोने की खातिर मैं
दिवस-रैन जन्मों तक रोया!


दौड़

मैंने जिनके वास्ते सब छल किए।
सौ बलाएँ लीं, सदा मंगल किए।
वक़्त का क्या फेर? सत्ता क्या गई?
वे मुझी को छोड़, आगे चल दिए।

युद्ध

हाथ में लेकर पताका शिखर पर चढ़ता रहा।
आदमी अपनी सरहदें खींचकर लड़ता रहा।।
भूमि जिसके नाम पर खून से लथपथ पड़ी है!
सातवें आकाश पर वह बैठकर हँसता रहा।

मानव अधिकार

मरता है कोई छात्र तो सियासत न कीजिए।
भूखों मरे किसान तो तिजारत न कीजिए।
हैं आप बड़े बुद्धिमान, शब्दों के खिलाड़ी!
लेकिन पिशाच कर्म की वकालत न कीजिए।

आतंक बीज

कल आपने बोई थीं गलियों में नफ़रतें।
यों आज लहलहाई हैं घर घर में दहशतें।
नादान बालकों को वहशी बनाने वालो!
खाएँगी तुमको एक दिन तुम्हारी वहशतें।

भय

डर रहे बूढ़े सयाने, सब कहें 'हम क्या करें'?
छिप गए सब कोटरों में, जान कर भी क्यों मरें?
चाँदनी में बाल खोले, घूमती है प्रेतनी!
और बच्चे हैं कि बाहर खेलने की ज़िद करें!

जीवन जो जिया

झल्लाई सी सुबह, पगलाई सी शाम।
क्रोध भरी दोपहर, यों ही दिवस तमाम।।
प्रेत ठोकते द्वार, ले ले मेरा नाम!
रात भूतनी बनी, यहाँ कहाँ विश्राम।

इतिहास बनाने वाले

खेत काटकर सड़क बना दी, सभी सुखा दीं क्यारी।
मथुरा का बाज़ार फैलता, ऊधो हैं व्यापारी।
कहीं तुम्हारी विजय कथा में, मेरा नाम नहीं है!
ब्रज का सब कुछ हरण कर लिया, प्रभुता यही तुम्हारी।


हालचाल

मौसम का हालचाल, हमसे न पूछिए।
यारों की चाल-ढाल, हमसे न पूछिए।
नेता की रग में पैठ के, कुर्सी के कीट ने
क्या-क्या किया कमाल, हमसे न पूछिए।


कवि धर्म

संभव नहीं कि शक्ति हो औ' ज़्यादती न हो।
इतना करो कि ज़्यादती को ज़्यादती कहो।
जनता के चारणो! सुनो, सत्ता के मत बनो
तुम जागते रहो कि कहीं ज़्यादती न हो।

बंदूक

छज्जे पे चोंच लड़ाते कबूतरों को देख कर
बस्ती के दारोगा ने कल बंदूक दाग दी।
सरकार के फरमान से हम इस कदर डरे
बचपन के सभी खतों को रो रो के आग दी।

औचित्य का प्रश्न

बदज़ुबानों की सभा की, क्या सदारत कीजिए?
क्यों किसी पर सच जताने, की हिमाकत कीजिए?
मौन ही रहना उचित है, इस नए माहौल में
प्यार की बातें न करिए, बस सियासत कीजिए!


सावधान

प्रभुओं से सावधान औ' प्रभुता से सावधान।
दंगल में जीत कर मिली सत्ता से सावधान
सीता के घर में झाँकते धोबी कई-कई!
नेता तो खैर ठीक है जनता से सावधान।

खैर मनाओ

कीमत घटी इन्सान की खैर मनाओ।
इस दौर में भगवान की खैर मनाओ।
जब सौंप दी अंधों को बंदूक आपने!
अब आप अपनी जान की खैर मनाओ।

डर सा

राह चलते राह से डर सा लगे है आजकल।
आप अपनी छाँह से डर सा लगे है आजकल।
चर्चा चली है आ गए सियासत में साँप भी!
यार! अपनी बाँह से डर सा लगे है आजकल।

जिजीविषा

पंख जल गए, विवश पखेरू फिर भी खिसक रहा है
इच्छाएँ गिर गईं, प्राण पर, अब भी सिसक रहा है
देह जूझती है अंतिम रण, साँस-साँस तिल-तिल भर
रोम-रोम में धँसा केकड़े का नख कसक रहा है

१ जून २०१७

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