बीसवीं सदी
सूख गई संबंधों की महानदी
घिसट-घिसट बीत गई बीसवीं सदी
बिखर गए चौपालों में जले अलाव
भर गए मवादों से अंतर के घाव
सुविधा के आगे लँगड़ाया अपनत्व
घर-घर में फैल गया ज़हरीला तत्व
आँगन में उग आई काँटों का बाड़
पिछवाड़े हुआँ-हुआँ कर रहा सियार
उद्वेलित नारों पर छिड़ा हुआ जंग
लिपे-पुते चेहरे भी लगते बदरंग
नेकी की गोद में पनप रही बदी
घिसट-घिसट बीत गई बीसवीं सदी
लोग यहाँ जीते हैं देख दिवास्वप्न
रो रही मछलियों से कौन करे प्रश्न
हँसने की बात हुआ बौना इतिहास
आज के भगीरथ को खूब लगे प्यास
उम्मीदों पर जीता मन का तटबंध
तन का वृंदावन ज्यों बिहँसे निर्गंध
खंड-खंड प्रेम, भक्ति खंड-खंड बाँझ
ताप तपी राहों पर ज्यों उतरे साँझ
कर्मों की फल-गठरी से लदी-फँदी
घिसट-घिसट बीत गई बीसवीं सदी
9 जनवरी 2007
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