अनुभूति में
रमणिका गुप्ता
की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
खजुराहो खजुराहो खजुराहो
तुम साथ देते तो
मितवा
मैं आज़ाद हुई हूँ
मैं हवा को लिखना चाहती हूँ
रात एक
युकलिप्टस
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रात एक युकलिपटस
आदमी और पशु से पहले
पेड़ होते थे!
शायद उसी युग का पेड़
एक युकलिप्टस
रात मुझसे मिलने आया!
अपनी बाहों की टहनियों से
अपनी उंगलियों के पत्तों से
वह
रात भर मुझे सहलाता रहा!
उसकी
सफेदी ने मुझे चूमा
और उसकी जड़ें
मेरी कोख में उग आईं
और मैं भी एक पेड़ बन गई
धरती के नीचे नीचे!
अपने ही अंदर-अंदर!!
रात मैं एक घाटी बन गयी
जिसमें युकलिप्टस की सफेदी
कतार-बद्ध खड़ी थी
अपनी हरियाली से ढंके
अपनी जड़ों से मुझे थामे
झूम रही थी
और पृथ्वी और पेड़ों के
संभोग की कहानी सुना कर
मुझे सृष्टि के रहस्य
बता रही थी!
बता रही थी
पृथ्वी ने आकाश को नकार कर
पेड़ों को कैसे और क्यों वरा
बता रही थी
गगन-विहारी और पृथ्वी-चारी का भेद
क्यों पृथ्वी ने कोख का सारा खजाना
लुटा दिया पेड़ों को?
वनस्पतियों को क्यों दिया
सारा सान्निध्य
कोमलता
रंग
ठण्डक
हरियाली
सब!
और आकाश को दी केवल दूरियां
मृगतृष्णा
चमक,
चहक लेकिन पेड़ों को ही दी!
बता दी उसने
पेड़ के समर्पण की गाथा
जो टूट गया
सूख गया
जल गया
धूल में मिल गया पृथ्वी की
पत्थर-कोयला-हीरा
बन गया
पर उसकी कोख से हटा नहीं
उसी में रहा
हवा में उड़ा नहीं!
पृथ्वी का पुत्र
और पति
दोनों रहा
पृथ्वी-जाया और पृथ्वी जयी
दोनों बना!
(रचनाकाल : २८.७.८२, प्रकृति युद्धरत है
में संकलित
ट्रक में पटना से हजारीबाग जाते हुए कोडरमा की घाटी के बाद रास्ते
में।)
२६ जुलाई २०१०
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