लोग
कुएँ में सिमटी दुनिया
कहाँ तक?
घर की चारदीवारी तक
दूकान के शटर तक
या ऑफ़िस के मेज़ जितनी चौड़ी।
सब अपने-अपने कुनबे समेटे
अपने-अपने घोसले तक।
गोल धरती पर
गोल-गोल घूमते लोग
कुछ दो पैरों जितनी दूरी चलते
कुछ चार पहियों से ज़मीन पर. . .
जी भर के भागते लोग।
कुछ दाएँ कुछ तथाकथित बाएँ चलते
अपने-अपने अनंत की ओर अग्रसर।
कुछ नोट की पर्चियों में उलझे
कुछ उगने की जगह खोजते
अपनी-अपनी जीवनी पढ़ते
स्टोव में हवा भरते लोग।
1 मई 2007
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