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अनुभूति में डॉ. राजेश कुमार माँझी की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
ताड़ की आड़
पैबंद लगा कपड़ा
बँधुआ मजदूर
भूख
वास्तविक विकास
 

 

ताड़ की आड़

वो जो पासी है
मेरे घर के पास ही
उसकी पाँच ताड़ें हैं।

रोज ताड़ी उतारने के बहाने
सुबह-शाम
चढ़ जाता है ताड़ पर
और मेरे आँगन में
मुझे काम-काज करते हुए
सबसे आँखें बचाकर
रोज देखता है
आँखें फाड़-फाड़कर मुझे।

मैं जवां जो हूँ
मेरी जवानी देख
नीयत खराब लगती है उसकी।

मजबूर हूँ मैं
किससे शिकायत करूँ
आखिर क्या कहूँ
कहूँ भी मैं कैसे
ताड़ के पत्तों से बनी
टाटी-रूपी दीवार की आड़ में
कौमार्य की अपने
रक्षा जो किए हुए हूँ।

क्या करूँगी
कैसे रहूँगी इस घर में
जिसकी मिट्टी की दीवार
बारिश में ढ़ह गई है।

कोई भी घुस सकता है
टूटे हुए इस घर में
जमाना भी खराब है
और तड़बाना भी यहीं
पास ही तो है।

लोग डरते हैं उससे
पर टाटी में
आँख दौड़ाते हैं
नहीं होता है जब वह पासी
घर के मेरे आसपास।

ये सारा इलाका उसी का है
कोई पत्ता भी नहीं हिल सकता
उसकी मर्जी के खिलाफ।

सहारा भी उसी का है
हाल-चाल पूछ लेता है
घर की जरूरतों को
अक्सर पूरा भी कर देता है।

पर बावजूद इसके
आवारा लगता है
पुलिस तक पहुँच है उसकी
पुलिस भी भूखी है पैसों की
और मैं स्त्री
कैसे करूँ सामना
इन उठती-चुभती नजरों का।

१ जुलाई २०१८

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