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अनुभूति में डॉ. राजेश कुमार माँझी की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
ताड़ की आड़
पैबंद लगा कपड़ा
बँधुआ मजदूर
भूख
वास्तविक विकास
 

 

पैबंद लगा कपड़ा

यों तो गाँव मेरा
बड़ों का है
पर सच्चाई यह है कि
गाँव लगता नहीं बड़ों का है

गाँव में हैं एक दुखिया काकी
जो दिनभर मेहनत-मजदूरी करके
बाल-बच्चों के लिए अपने
करती हैं जुगाड़
रोटी का
बड़े ही परिश्रम से

मैंने देखा है उनको
अपनी बच्ची के फटे कपड़ों को
बारंबार सिलते हुए
और सुई के चुभ जाने से नहीं
बल्कि अपनी मजबूरी पर
छुप छुपकर रोते हुए

यही नहीं
उनकी साड़ी भी
तार-तार हो गई है
और बड़े
एक साड़ी देने की जगह
देखते हैं उन्हें कामुकता से
और उनकी निगाहें
काकी के दिल को तार-तार
कर देती हैं हर बार
हर रोज

मैं भी लाचार हूँ
चाह कर भी उनके लिए
नए वस्त्र नहीं जुटा पाता हूँ
जो कमाता हूँ
परिवार मेरा चलता है उससे
खींच-तान कर


नए न सही पर
पुराने कपड़े घर के अपने
यदा कदा मैं जाकर गाँव
काकी को दे आता हूँ
और अपनी इस मजबूरी पर
छुपकर आँसू मैं छलकाता हूँ

चाहता हूँ कि गाँव में
सब लोगों में समानता हो
एकता हो, भाईचारा हो
सबके घर में अन्न-वसन हो
दुखी न किसी का मन हो

१ जुलाई २०१८

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