अनुभूति में
डॉ. राजेश कुमार माँझी की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
ताड़ की आड़
पैबंद लगा कपड़ा
बँधुआ मजदूर
भूख
वास्तविक विकास
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बंधुआ मज़दूर
दिनभर ईंट पाथते हैं
गधे की पीठ पर फिर
ये कच्ची ईंट लादते हैं
गधे ये ईंट लेकर आवे तक जाते हैं
उतारने में ईंट देर हुई तो
मालिक बौखलाते हैं।
वे मालिक हैं
ये मजदूर हैं
मालिक मोटर से आते हैं
मोटर से जाते हैं
और ये बेचारे यहीं पर
दिनभर धूल चाटते हैं।
ग्यारह नम्बर की सवारी करते हैं
मालिक से बहुत डरते हैं
ईंट पाथते-पकाते दिनभर सुबकते हैं।
भोजन भी मिले न ढंग से
बंधुआ मजदूर हैं
क्या करें ये बेचारे बहुत मजबूर हैं
ज्यादार हैं दलित-आदिवासी
रहते हैं कच्चे घरों में
जो चिमनी के पास ही
बने हुए होते हैं।
बावजूद इसके पाथते हैं ईंट
हमारे लिए, हमारे घरों के लिए
बड़े ही परिश्रम से।
पर इनके मकान कच्चे हैं
इनके भी तो बच्चे हैं
सुख-सुविधा से कोसों दूर
पढ़ाई क्या...?
ईंट पाथना सीखते हैं
और फिर इस तरह
तैयार होता है
एक और
बंधुआ मजदूर।
१ जुलाई २०१८
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