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अनुभूति में राजेश पंकज की
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मातृभाषा के प्रति - देवनागरी

 

 

गणित

पंडित जी!
आपकी शिकायत भी ठीक है
कि सत्तर प्रतिशत लोग
दूध बिलो रहे हैं,
और तीस प्रतिशत लोग
मक्खन खा रहे हैं।
अरे पंडित जी,
इस में नया क्या है?
यह गणित तो पूरे देश में लागू है,
और हम इस देश के वासी हैं।
पंडित जी!
आप कहते हैं कि मैं कवि हूँ,
मेरे हाथ में कलम है,
मैं इस देश को सुधारूं।
भला क्यों सुधारूं?
पंडित जी! मुझमें इतना सब्र नहीं है
कि आप लोग मुझे
राष्ट्र पिता बना कर गोली मारें,
और मेरे बुत चौराहे पर लगाएँ,
मेरे चरणों की धूल,
जनता की आँखों में झोंक कर
अपनी जेबें भरें
और देश के सुपूतों में खजर बाँटें।
और मैं,
नपुंसक बनकर
स्वयं के राष्ट्र पिता होने पर अचंभित
स्तब्ध-सा तुम्हें देखता रहूँ।
मुझे कायर ही रहने दो,
मेरे पौरुष को कायरता की आग में
सुलगने दो, और
ईश्वर से प्रार्थना करो
कि अंबा की राख के समान,
मेरे पौरुष की राख से जागे
विवेक का शिखंडी।
और जा अड़े,
दुर्योधनों के पक्ष में खड़े,
भीष्मों के समक्ष।
ताकि युगों से जारी धर्मयुद्ध में लड़ते
भीष्म भी जान लें
धर्म का मर्म।
तब आपको समझाना नहीं पड़ेगा
कि धर्मयुद्ध में केवल
युद्ध ही होता है धर्म।
तब मैं भी कलम छोड़
धारूँगा गांडीव और
भुला दूँगा द्रोण का गुरुत्व
और चिड़िया की आँख।
तब एकलव्य भी होगा मेरे संग
और हम दोनों मिलकर
यह प्रश्न करेंगे गुरू द्रोण से
कि क्यों
सत्तर प्रतिशत लोग
दूध बिलो रहे हैं।
और तीस प्रतिशत लोग
मक्खन खा रहे हैं।

९ नवंबर २००६

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