अनुभूति में
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आसरा
(वनस्पति विज्ञान से संबंधित कविता)
दूर से निहारती हूँ
तुम्हें
सुना है,
गुणों का अकूत भंडार हो तुम
वैसे, हूँ तो मैं भी
तुम में भी एक दोष है,
और मुझ में भी
तुम्हारा असह्य कड़वापन,
जो शायद तुम्हारे लिए राम बाण हो
और मेरा, दुर्बल शरीर
मुझे चाहिए,
एक सहारा सिर्फ रोशनी पाने के लिए
सोचती हूँ फिर क्यों न तुम्हारा ही लूँ
अवगुण कम न कर सकूँ तो क्या,
गुण बढ़ा तो लूँ
आओ हम दोनों मिलकर
कुछ नया करें
किसी असाध्य रोग की दवा बनें
दूर से निहारती हूँ तुम्हें,
जानती हूँ, मैं अच्छी हूँ,
पर बहुत अच्छी बनना चाहती हूँ
कहते हैं,
नीम पर चढ़ी हुई गुर्च बहुत अच्छी होती है
बोलो! क्या दोगे मुझे आसरा,
अपने चौड़े विशाल छतनार वक्षस्थल पर?
२३ मई २०११
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