अनुभूति में
पुष्पा तिवारी की रचनाएँ
छदमुक्त में-
आजकल क्या लिख रही हो
आत्मविश्लेषण
कितना जानती हूँ
छोटी छोटी बातें
व्यावहारिक बनने की चेष्टा
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कितना जानती हूँ मैं
कितना जानती हूँ मैं
पृथ्वी आकाश को?
यह प्रश्न सदियों से
मेरे मन उमड़ता घुमड़ता
आज भी जीवित है
उतना ही जाना
जितना कहा गया
जितना लिखा गया
एक दिन सपने में आई
पृथ्वी
मुझे दोस्त समझ बता रही थी
अपनी दास्तां
हरियाती गरमाती जड़ाती
पृथ्वी की कथा
जैसे
किसी स्त्री की कथा
उसने कहा
देखा है तुमने मेरे सजन अम्बर को
चकित मैं
हां के सिवा क्या कहती
खुद कैसा चाँद सूरज तारों से सजा सँवरा है
खुद को सजाने रखी है आकाश गंगा
और मुझे कहता है
ढके रहता हूँ बाहरी दुश्मनों से तुम्हें
उसका अहं ही जलाता है उसे
फिर भी अकड़ कहता है
तुम्हें पालने को ही
सूरज पालकर जलता हूँ दिन भर
रात होते ही भले वह चाँद की पहरेदारी में
चैन से सोता है
लेकिन देखो मुझे सावधान रहने को कहता है।
मैं सहते सहते जड़ होती हूँ
लेकिन आखिर प्राण तो हैं न मुझमें?
मैं भी विरोध करती हूँ
कभी ज्वालामुखी तो कभी सुनामी लाकर
कभी गुस्से में डुबा देती हूँ सारे जहाज
हालाँकि गुस्से को रोकने के लिये
झटकार लेती हूँ कभी खुद को
कई बार तहस नहस करने को
बाढ़ आँधी तूफान की तरह गरजती भी हूँ
दया आती है कभी
आत्मा कचोटती है
अपने बच्चों के लिए
माँ हूँ ना
माँ बनकर पालती हूँ
इसलिए फिर शांत हो
खेतों में पसर जाती हूँ,
धूप और हरियाली में खो जाती हूँ
६ दिसंबर २०१० |