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कविताओं में—
बंद
बचे हुए लोग
बाज़ार में इंतज़ार
लिफ़्टमैन
लौटना

 

लिफ़्टमैन

हैरत होती उसे
यह देख
कि नीचे उतरने के लिए भी
लगती इतनी भीड़
ऐसे मौकों पर ले लेता वह
पाबंदी से कुछ अधिक भार
टूटकर भी
नीचे ही पहुँचेंगे
और जल्दी
चार गुना चार
का यह विस्तार
जिसमें उगकर रोज़ डूबता उसका सूर्य
हैरत है अगर अब भी
है कुछ हैरत
बाहर से आते लोग
तो उनके साथ कुछ बाहर भी
आ जाता भीतर
उससे तो कोई कुछ नहीं कहता
पर उनकी बातों से
कुछ कुछ पता चलता
आपस में भी वैसे
कम ही होतीं बातें
उनकी दृष्टि वहाँ रहती
जहाँ मंज़िल झलकती
ऊपर जानेवाले
ऊपर देखते
जैसे अपनी ही निगाहों से
ऊँचा उठते
चार गुना चार
का यह कारागार
दरवाज़ा जिसका
खुलता बंद होता रहता
वह लेकिन वहीं रहता
इस छोटी सी जगह में
ऊँचा सोचता
जेहन उसका तितली-सा उड़ता
यही एक दुर्लभ कोना है जहाँ
बड़े-बड़े लोग खड़े रहते
एक छोटे आदमी के पीछे
देखता वह
दिन की शुरुआत में
नहाए कपड़े सजाए
और अंत में
मुचड़े निचुड़े पस्त लोग
थकान और टूटन देखी
पर नींद नहीं
इतने वर्षों में
किसी अकेले को कभी
देखता आते झपकी
तो रोक देता लिफ्ट कुछ देर के लिए
बीच में कहीं
जहाँ तल हो न मंज़िल
कि उसकी नींद पूरी हो
फिर उसके लिए सुबह हो नई
पर नहीं यहाँ किसी को झपकी नहीं आएगी
आँख सफ़र में झपक सकती है
मगर यहाँ कोई यात्रा नहीं
मंज़िलों की आवाजाही
होड़ चढ़ने उतरने की
वह महिलाकर्मी
जो एक जागी हुई सुवासित रात के बाद
चढ़े हुए अपने दिन लिये
रोज़ आती जाती
डर लगता उसके दिन
पूरे न हो जाएँ एक दिन यहीं
उसे कोख से भी
एक हारा थका आदमी न पैदा हो कहीं
वह जो लिफ्ट चलाता है सुबह से रात
क्या इसे रोक सकता है
बत्तियाँ बुझा सकता है
थोड़ा अवकाश रच सकता है
जिसमें चूम लें होंठ
थाम लें हाथ
नहीं है लेकिन कुछ भी नहीं
चढ़ते उतरते लोग और एक वह
जब तक
है
तो है
पता है
किसी दिन आदेश आ सकता है
उसे हटाया जा सकता है
इस बिना पर
कि चढ़नेवाले या उतरनेवाले
एक आदमी की जगह वह
बेवजह रोकता है
अच्छी तरह जानता है
उसकी जगह ख़तरे में है
किसी मार्गदर्शक की ज़रूरत नहीं आने वाले दौर में
भीड़ और होड़...

16 अक्तूबर 2007

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