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प्रेमरंजन अनिमेष की
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लौटना
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लौटना
हवा में धूल है
और रास्तों में गड्ढे
पर इन्हीं से होकर
मिलते रहे हैं
सबसे खूबसूरत ख़याल
मुझे यह जगह पसंद है
क्योंकि चलते हुए यहाँ
सोचना नहीं पड़ता
चल रहा हूँ कहाँ
रात में रोशनी नहीं
दिन में पानी
न्याय व्यवस्था के बदले
व्यवस्था का न्याय
घूमती पट्टी पर
उलटा चलते प्रदेश का
केंद्र यह
अख़बार की ख़बरों का भी
जिनकी सुर्खियाँ उन्हें कंपकंपातीं
जो यहाँ नहीं यहाँ के नहीं
यह अपनी ओर एक यात्रा है
अपने शहर लौट रहा हूँ
एक अंतराल के बाद
हालाँकि इस दरमियान भी
भागता रहा इसकी तरफ़ छूटते
सशरीर अशरीर
मगर अपने ही यहाँ अतिथि-सा
हमेशा कोई हाथ पकड़कर खींचता
जो साथ देती है
वही स्त्री सबसे सुंदर होती है
इस शहर ने साथ दिया है मेरा
निर्माण किया है
मातृभूमि नहीं
पर यही मेरे माता-पिता
इतनी गहरी धँसी उनकी जड़ें
कि स्थानांतरित नहीं की जा सकतीं
यहीं आकर पा सकता हूँ उनकी छाँव
मैं चाहता हूँ यहीं रोपें मेरे बच्चे पाँव
तुमने सोचा है
और अपनों को बताया है
कि यह तुम्हारी तरक्की के लिए
ठीक नहीं ठहरेगा?
कोई फिर मेरा खुला दरवाज़ा खटखटाता
ये बातें
वही सोचते हैं
जिन्हें नहीं मिला कभी प्यार
इस शहर ने दिया है मुझे
मेरा पहला अंत तक पहला
और अब तक का आखिर प्यार
यह मैं नहीं बताता
प्यार कहने की चीज़ नहीं
बस मुसकुराता
आप सब सफल जनों
और आपकी सफलता को
नमस्कार
इतने क़रीब से अंतिम बार
ट्रेन पहुँच रही है
कोई नहीं अगवानी में
अपने यहाँ ऐसा ही होता है
अपनी बोली की एक गाली
सुनाई देती
और यक़ीन हो जाता
ठिकाने पहुँच गया
कितने उछाह से
धरता हूँ पाँव
वापस अपनी धरती पर
कि सहसा याद आता
वह घोड़ा
जो अगला बायां पैर
ज़मीन पर रखते
सिहरकर उठा लेता था
क्योंकि उसके टखने में
पुराना काण था
दर्द कीट और मक्खियों से भरा
तमाम तरह की तैयारियों में लगा उस समय
आते जाते उसे देखता सोचता
कुछ हो सका तो
उसके लिए ज़रूर करूँगा
तब तो कुछ था नहीं
न घोड़े को ले जा सकता था डॉक्टर के पास
न डॉक्टर को घोड़े तक
और जिसका वह था
बीमार बेकार जान छोड़कर उसे
कबका चला गया
आँसुओं की एक लकीर सूखी-सी
जैसे उसकी भूल कि ज़िंदा रहा तब भी
स्टेशन से बाहर
देखता सवारी
और फैले कचरे के बीच खड़ा
दिख जाता वही
अपनी दुखती टाँग उठाए
जाने क्या हो गया है मेरी आँखों को
मलता उन्हें फिर देखता चारों तरफ़
उसी मुद्रा में नज़र आते वहाँ सभी
आनेवालों का करते इंतज़ार...
16 अक्तूबर 2007
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